मुंबई। सिनेमाघरों में फिल्मों के रिलीज होने का सिलसिला शुरू हो चुका है। आलिया भट्ट स्टारर गंगूबाई काठियावाड़ी के बाद अमिताभ बच्चन स्टारर झुंड आज सिनेमाघरों में पहुंच रही है। फिल्म सैराट के पांच साल बाद फिल्म डायरेक्टर नागराज मंजुले एक बार फिर दमदार कहानी लेकर आए हैं। अमिताभ बच्चन के साथ इस फिल्म में जहां सैराट की स्टारकास्ट नजर आ रही है। फिल्म की कहानी फुटबॉल के जरिए जिंदगी के खेल समझाती है।
मूवी रिव्यू : अमिताभ बच्चन एक प्रोफेसर हैं जो रिटायर होने वाले हैं। पास वाली झोपड़पट्टी की बस्ती के बच्चों को सिगरेट, शराब, ड्रग आदि लेते हुए देखकर उन्हें एक तरकीब सूझती है। वो उन गुमराह बच्चों को फुटबॉल खेलने के लिए रोज खुद की सेविंग से 500 रुपए देते हैं। लड़के और लड़कियां धीरे-धीरे सुधरते नजर आते हैं। करते-करते, प्रोफेसर साहब की झोपड़पट्टी फुटबॉल टीम को अंतर्राष्ट्रीय मान्यता मिलती है। इस बीच में, टीम और प्रोफेसर को बहुत सारे पापड़ बेलने पड़ते हैं।
नागराज पोपटराव मंजुले किस कहानी में थोड़ा दम तो है क्योंकि यह संदेश देती है कि खाली दिमाग (जो शैतान का घर होता है) को किसी भी काम में लगा देना चाहिए। पर मैसेज के अलावा, कहानी में ज्यादा कुछ नहीं है और इसके कारण हैं। एक तो, यह कुछ देर बाद दम तोड़ देती है क्योंकि वही बातें दोहराई जाती हैं। दूसरी बात यह कि कहानी में वह भावुकता का हाई पॉइंट जो आना चाहिए, वह नहीं आता है। मंजुले का स्क्रीनप्ले बहुत ज्यादा लंबा और खींचा हुआ है। इससे दर्शक को काफी बार बोरियत महसूस होती है। झोपड़पट्टी टीम इतनी शानदार टीम कैसे बनी, यह दिखाने के बजाय, बार-बार, उनका खेल और खेल के बीच के झगड़ों पर ज्यादा जोर दिया गया है। टीम के संघर्ष पर ज्यादा ध्यान दिया जाता तो मजा भी आता और भावनाएं भी जागरूक होती, दर्शकों को रोना भी आता, जो ऐसी फिल्मों में बहुत जरूरी होता है। कहने का मतलब है, इस फिल्म में रोमांस के साथ-साथ, इमोशंस की भी कमी है। हां, कॉमेडी बहुत रियल लगती है मगर वह भी काफी नहीं है। कई सारे ट्विस्ट और टर्न प्रिडिक्टेबल हैं।
एक्टिंग: अमिताभ बच्चन ने प्रोफेसर विजय बोराडे की भूमिका काफी अच्छे से निभाई है। उनका किरदार नाशिक के प्रोफेसर विजय बरसे पर आधारित है। विजय बरसे ने नागपुर में झोपड़पट्टी में रहने वाले बच्चों के लिए स्लम सॉकर ऑर्गेनाइजेशन का आयोजन किया था। लेकिन बच्चन का हर जगह पर बच्चों के हक के लिए ‘भीख’ मांगना थोड़ा अटपटा लगता है, ऐसा लगता है जैसे कि राइटर को अपने ही किरदार पर विश्वास ना हो। अंकुश गेडम ‘डॉन’ अंकुश के किरदार में चमकते हैं। किशोर कदम प्रोफेसर विजय बोराडे के सहकर्मी की भूमिका में अपनी एक छाप छोड़ते हैं। आकाश ठोसर न सिर्फ खूबसूरत लगते हैं लेकिन काम भी अच्छा किया है। रिंकू राजगुरु एक छोटे रोल में खरी उतरती हैं।
डायरेक्शन एंड म्यूजिक: नागराज मंजुले का निर्देशन औसत है। वह एक दमदार फिल्म जो दर्शक को खूब रुलाती और हंसाती, नहीं बना पाए। अजय-अतुल का संगीत ठीक-ठाक है। गानों के बोल जुबान पर आसानी से नहीं चढेंगे। साकेत कनेटकर का पार्श्व संगीत इससे कई बेहतर होना चाहिए था। अंडरडॉग्स की कहानी में जब तक बैकग्राउंड म्यूजिक रोंगटे नहीं खड़े कर दे, मतलब नहीं बनता। सुधाकर यक्कांति रेड्डी का कैमरा वर्क औसत से ऊपर है। संकलन (कुतुब इनामदार और वैभव धवाड़े) कमजोर है।
कंक्लूजन: कुल मिलाकर, झुंड को क्रिटिकल एक्लेम मिलेगा लेकिन टिकट खिड़की पर कोई खास बात नहीं होगी।
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