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परिसीमन को लेकर क्यों डरे हुए हैं दक्षिणी राज्य, 2026 में यूपी-बिहार में क्या होने वाला है?

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नई दिल्ली।  2026 में लोकसभा की सीटों का परिसीमन होना है। यह कार्य उस पार्टी की सरकार के कार्यकाल में होगा, जो 2024 का लोकसभा चुनाव जीतकर आएगी। नए संसद भवन के निर्माण में इस संभावित परिसीमन का बहुत बड़ा रोल है, क्योंकि इसके बाद देश में लोकसभा की मौजूदा सीटों में अप्रत्याशित बढ़ोतरी होनी तय है। लेकिन, इस वैधानिक प्रक्रिया को लेकर दक्षिण भारत के राज्य अभी से आशंकित हो उठे हैं।
2026 के परिसीमन को लेकर आशंकित है दक्षिण भारतीय राज्य
लोकसभा में सीटों की मौजूदा संख्या 543 है, इनके अलावा दो नामांकित सदस्यों के लिए भी जगह है। तेलंगाना के कैबिनेट मंत्री और मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव के बेटे केटी रमा राव ने एक प्रोजेक्शन चार्ट शेयर किया है, जिसमें 2026 में परिसीमन के बाद सीटों की बढ़ी हुई संख्या का अनुमान जताया गया है।
लोकसभा की सीटें 848 होने का अनुमान
इस प्रोक्शन के अनुसार परिसीमन के बाद लोकसभा में सांसदों की कुल संख्या 848 हो जाएगी। मतलब, लोकसभा सांसदों की संख्या में 300 से अधिक बढ़ जाएगी। जाहिर है कि परिसीमन का आधार जनसंख्या होगी। क्योंकि, यूपी-बिहार सबसे ज्यादा आबादी वाले राज्य हैं और वहां जनसंख्या ज्यादा बढ़ी भी है, इसलिए अनुमान के हिसाब से यहां लोकसभा की सीटें परिसीमन के बाद बढ़कर 222 हो जाएंगी।
दक्षिण भारतीय राज्यों में 165 सीटें होने का अनुमान
वहीं, दक्षिण भारत के 6 राज्यों तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक और पुडुचेरी में लोकसभा की सीटें बढ़कर 165 होने की संभावना है। देश के बाकी राज्यों में सांसदों की संख्या बढ़कर 461 हो जाने का अनुमान जताया गया है।
यूपी-बिहार में सीटों की संख्या ज्यादा बढ़ने के अनुमान पर विवाद
आज दक्षिण भारत के ये 6 राज्य 130 सांसदों को चुनकर लोकसभा भेजते हैं। वहीं बिहार और उत्तर प्रदेश से कुल 120 सांसद चुने जाते हैं। विवाद इसी प्रोजेक्शन की वजह से शुरू हुआ है। दक्षिण भारतीय राज्यों को लगता है कि उन्हें सिर्फ 35 अतिरिक्त सांसद मिलेंगे और अकेले यूपी-बिहार को 102 अतिरक्त सांसद चुनने का मौका मिल जाएगा।
यह एक त्रासदी होगी- केटीआर
केटीआर को लगता है कि अगर परिसीमन के बाद ऐसा होता है तो उत्तर भारत की वजह से दक्षिणी राज्यों के साथ अन्याय हो जाएगा। यह मुद्दा उन्होंने ट्वीट के जरिए उठाया है। उन्होंने संभावित परिसीमन के बाद की स्थिति वाले ट्वीट को शेयर करते हुए लिखा, ‘यह वास्तव में एक मजाक है और अगर यह सच हो जाती है तो एक त्रासदी है।’
दक्षिण के राज्यों को गोलबंद करने की कोशिश
उनके मुताबिक, ‘भारत के दक्षिणी राज्य आजादी के बाद सभी क्षेत्रों में बेस्ट परफॉर्मर रहे हैं। सभी दक्षिणी राज्यों के नेताओं और लोगों को इस अन्याय के खिलाफ राजनीतिक मतभेदों से ऊपर उठकर सामूहिक रूप से आवाज उठाने की आवश्यकता है।’
जनसंख्या नियंत्रण को मान रहे हैं सजा
भारत राष्ट्र समिति के कार्यकारी अध्यक्ष के मुताबिक दक्षिण भारत के राज्यों को प्रगतिशील नीतियों की सजा मिल रही है, क्योंकि इन्होंने जनसंख्या नियंत्रण पर केंद्र की नीतियों का काफी अच्छे से पालन किया है। उनका सीधा इशारा बिहार और यूपी जैसे राज्यों में इसकी नाकामी की ओर है।
परिसीमन के लिए जीडीपी का दे रहे हैं हवाला
उन्होंने मानव विकास सूचकांक का भी हवाला दिया है और कहा है कि दक्षिणी राज्यों में भारत की सिर्फ 18 फीसदी आबादी है, लेकिन देश की जीडीपी में इनका योगदान 35 फीसदी है। बीआरएस नेता को लगता है कि ‘लोकसभा के परिसीमन प्रक्रिया में अनुचित तरीकों की वजह से राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था और विकास में योगदान देने वाले राज्यों को कम नहीं आंका जाना चाहिए।’
बीआरएस का चुनावी एजेंडा हो सकता है?
यह सिर्फ तेलंगाना का मामला नहीं है। जो मुद्दा उठाया गया है, वह आगे चलकर तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और पुडुचेरी से भी उठने वाला है। तेलंगाना में इस साल विधानसभा चुनाव होने हैं। ऐसे मौके पर यह विषय छेड़ना बीआरएस की चुनावी रणनीति हो सकती है, क्योंकि परिसीमन की अभी न तो सुगबुगाहट है और न ही लोकसभा चुनाव से पहले यह होने की संभावना है। लेकिन, मामला गंभीर है और आज नहीं तो साल-डेड़ साल बाद यह विषय सुलगने वाला है।
लोकतंत्र में हर नागरिक को मताधिकार का बराबर अधिकार
वैसे तथ्य यह भी है कि भारतीय लोकतंत्र हर नागरिक को मताधिकार का बराबर का अधिकार देता है। चाहे वह बिहार-झारखंड जैसे पिछड़े राज्य का हो या गुजरात, महाराष्ट्र या दक्षिण भारतीय राज्यों का। परिसीन आयोग की कोशिश यही होती है कि आमतौर पर एक सांसद के निर्वाचन क्षेत्र में (जनसंख्या के हिसाब से ) बहुत ज्यादा का अंतर न रहे।
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परिसीमन क्या है?
परिसीमन का शाब्दिक अर्थ है निर्वाचन क्षेत्र की सीमाओं का रेखांकन करना। परिसीमन का कार्य एक शक्तिशाली संस्था के हाथों में होती है, जिसे परिसीमन आयोग कहते हैं। भारत में चार बार ऐसे परिसीमन आयोग का गठन हो चुका है। 1952, 1963, 1973 और 2002। चारों बार चार अलग-अलग परिसीमन कानून के तहत यह कार्य संपन्न हुआ है।


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