पटना। बीजेपी भले विपक्षी एकता (Bihar Opposition Meet) की बैठक को वंशवाद और भ्रष्टाचारियों की जुटान कह कर पल्ला झाड़ ले रही हो, लेकिन सच्चाई कुछ और ही है। नीतीश कुमार (Nitish Kumar) ने जिस मिशन का बीड़ा उठाया वह न केवल 100 फीसदी पूरा हुआ, बल्कि इस बैठक का जो फलाफल आया वह भी राजनीतिक रूप से सकारात्मकता के साथ आया। इसे ममता बनर्जी की आक्रामकता और तमाम वाम दलों के सकारात्मक बयान से समझा जा सकता है। बीजेपी के लिए भी यह कम चुनौती नहीं की जम्मू कश्मीर की राजनीति के दो परस्पर विरोधी दल नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी एक मंच से बीजेपी के विरुद्ध इकट्ठे हो गए हैं।
राजनीति की नजरों में इस बैठक की खासियत!
देश की राजनीति के फलक पर पटना में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पहल से 15 राजनीतिक दलों की बैठक हुई। ये नरेंद्र मोदी की सरकार के विरुद्ध अब तक की सबसे बड़ी गोलबंदी है। ऐसा इसलिए क्योंकि इस बैठक में बिहार के सीएम नीतीश के अलावा लालू यादव, तेजस्वी यादव, राहुल गांधी, मल्लिकार्जुन खरगे, हेमंत सोरेन शामिल हुए। वाम नेता डी राजा, सीताराम येचुरी, दीपांकर भट्टाचार्य, अखिलेश यादव, एमके स्टालिन, ममता बनर्जी भी पहुंचे। वहीं भगवंत मान, अरविंद केजरीवाल, शरद पवार, फारुख अब्दुल्ला, महबूबा मुफ्ती और उद्धव ठाकरे जैसे कद्दावर नेताओं ने भी इसमें शिरकत की।
पटना में हुई विपक्षी एकता बैठक की महत्ता इसलिए भी बढ़ गई कि तमाम दलों ने ‘भाजपा हटाओ’ मुहिम को गंभीरता से लिया। सभी दलों ने अपने-अपने शीर्ष नेताओं को इस बैठक के लिए भेजा। आज की तारीख में बीजेपी के लिए इन कद्दावर नेताओं का एक मंच पर आना किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं है।
चुनौती तो नीतीश के लिए भी
पटना की बैठक से सीएम नीतीश के लिए भी चुनौतियां कम नहीं हैं। अगर नीतीश कुमार संयोजक बनते हैं तो आने वाले समय में गठबंधन से जुड़े सभी मुद्दों को सुलझाने का जिम्मा उन पर होगा। इसमें लोकसभा सीटों का बंटवारा करने के लिए फार्मूला तय करना, कांग्रेस से आमने-सामने की लड़ाई लड़ने वाली ममता बनर्जी की टीएमसी, अरविंद केजरीवाल की AAP, शरद पवार की एनसीपी आदि से बेहतर तालमेल बिठाने की नीति तय करना अहम होगा। साथ ही मोदी सरकार और बीजेपी को कैसे और किन मुद्दों पर घेरा जाए इसे लेकर भी नीतीश कुमार को अहम भूमिका निभानी होगी।
केजरीवाल कोई बड़ी समस्या नहीं?
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को लेकर जो तरह-तरह की बातें उछाली जा रहीं उसके बहुत कुछ मायने नहीं हैं। ऐसा इसलिए भी कि केजरीवाल जिस अध्यादेश के बारे में कांग्रेस से सहमति चाह रहे हैं वह मसला सदन के भीतर का है। यह बात बीजेपी भी समझती है कि कांग्रेस निश्चित रूप से उस अध्यादेश का विरोध करेगी। अगर सचमुच AAP अध्यादेश का बहाना कर अलग होकर अलग चुनाव लड़ना चाहती है तो भी बाकी बचे 14 बड़े दलों से भी बीजेपी को बड़ी चुनौती मिलने जा रही।
बीजेपी के सामने संकट तो है!
साल 2019 के लोकसभा चुनाव की ही चर्चा करें तो बीजेपी ने महज 43 फीसदी वोट पाकर लोकसभा की 300 से ज्यादा सीटों पर कब्जा जमा लिया। वहीं 57 प्रतिशत वोट उसके खिलाफ पड़े थे। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इसी वोट बैंक यानी 57 प्रतिशत पर निशाना साधा है। उधर बीजेपी भले ही विपक्षी एकता की इस मुहिम को ‘भ्रष्टाचार में डूबी पार्टियों का ठगबंधन’ करार दे रही हो। या फिर ये कहना कि इन दलों की कोई सामान्य नीति या विचारधारा नहीं है और चुनाव जीतने के लिए झूठे वादे करते हैं। ऐसा सोचना समझ लीजिए अपने आपको धोखा देने जैसा ही है। हालंकि, बीजेपी की कथनी और करनी में अंतर तो इसी बात से लगा सकते हैं कि बीजेपी के मुख्य रणनीतिकार अमित शाह का चुनावी टारगेट 400 से घटकर 300 सीट पर आ गया है।
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