गुवाहाटी। असम सरकार ने शीतकालीन सत्र के पहले दिन नेल्ली हत्याकांड पर टीडी तिवारी कमीशन की रिपोर्ट और मेहता कमीशन की रिपोर्ट असेंबली में पेश की। हिमंत बिस्वसरमा ने विधानसभा चुनाव से पहले 1983 में असम के नेल्ली नरसंहार का ब्लैक चैप्टर फिर खोल दिया है। दोनों रिपोर्ट में जो कारण बताए गए हैं, वे विरोधाभासी हैं। तत्कालीन कांग्रेस सरकार की ओर से गठित जांच तिवारी आयोग ने तत्कालीन कांग्रेस सरकार को क्लीन चिट दी है, जबकि जस्टिस टी. यू. मेहता की रिपोर्ट में सामूहिक हत्या के लिए चुनाव कराने के फैसले को जिम्मेदार ठहराया है। 42 साल पहले नेल्ली नरसंहार में 1800 लोग आधिकारिक तौर से मारे गए थे, जबकि गैर-सरकारी रिपोर्ट में मरने वालों की संख्या 3,000 बताई गई थी। मरने वालों में ज़्यादातर बंगाली भाषी मुसलमान थे।
उग्र आंदोलन के बीच इंदिरा गांधी ने कराए चुनाव
बांग्लादेश से आए अवैध घुसपैठियों के खिलाफ 1979 में बड़ा आंदोलन हुआ, जो 1985 तक चला। इसके दौरान असम में कई बार राष्ट्रपति शासन लगे। बीच-बीच में कांग्रेस सरकार बनाती रही। 19 मार्च 1982 को भी केंद्र ने असम आंदोलन के बीच राष्ट्रपति शासन लगाया था। पूरे राज्य में स्थानीय असमिया, असम के आदिवासी, बंगाली भाषी मुसलमान और बंगाली हिंदुओं के बीच झड़पें हो रही थीं। ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन (AASU) और ऑल असम गना संग्राम परिषद (AAGSP) के नेतृत्व में असमिया युवा उग्र हो चुके थे। 1982 में इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने संवैधानिक मजबूरी का हवाला देते हुए असम में विधानसभा चुनाव कराने की सिफारिश की। चुनाव आयोग ने भी विधानसभा चुनाव कराने का फैसला किया।
दो आयोग बने, एक सरकारी, दूसरा न्यायिक
फरवरी 1983 में असम के नेल्ली में चुनाव के दौरान ही संघर्ष बढ़ गया और इसमें हजारों लोग मारे गए। इसके बावजूद चुनाव हुए और कांग्रेस ने हितेश्वर सैकिया के नेतृत्व में सरकार बनाई। तत्कालीन सैकिया सरकार ने सामूहिक नरसंहार के लिए रिटायर्ड मुख्य सचिव त्रिभुवन प्रसाद तिवारी की अध्यक्षता में जांच आयोग बनाया गया। 1984 में असम फ्रीडम फाइटर्स एसोसिएशन ने हिमाचल प्रदेश के पूर्व मुख्य जस्टिस टी. यू. मेहता के नेतृत्व में न्यायिक आयोग का गठन किया। दोनों जांच कमेटी ने अपनी रिपोर्ट हितेश्वर सैकिया की कांग्रेस सरकार को सौंप दी, मगर इसे सार्वजनिक नहीं किया गया। 1985 में सरकार बनाने के बाद प्रफुल्ल महंत ने यह रिपोर्ट विधानसभा अध्यक्ष को सौंप दी, मगर इसे सदन के पटल पर नही रखा। 40 साल बाद बीजेपी की हिमंत बिस्व सरमा सरकार ने अब रिपोर्ट विधानसभा में पेश कर दी।
निर्वाचन आयोग पर भी उठे सवाल
नेल्ली हिंसा के बाद केंद्र की तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार के चुनाव कराने के फैसले पर सवाल उठे थे। निर्वाचन आयोग पर भी सरकार के इशारे पर चुनाव कराने के आरोप लगे। गैर कांग्रेसी दलों का आरोप था कि कांग्रेस ने सत्ता हासिल करने के लिए आंदोलन की आंच में झुलस रहे असम में चुनाव कराए। यह भी बताया गया कि आंदोलन के कारण सरकारी मशीनरी भी चुनाव के लिए तैयार नहीं थी। अब टी. पी. तिवारी और जस्टिस मेहता की रिपोर्ट सामने आई है, उनमें नेल्ली नरसंहार के अलग-अलग कारण बताए गए हैं। सरकारी तिवारी आयोग की रिपोर्ट कहती है कि चुनाव कराने के फैसले को हिंसा का कारण नहीं माना जा सकता। वहीं, गैर-सरकारी मेहता आयोग की रिपोर्ट का कहना है कि चुनाव ही हिंसा का मुख्य और तात्कालिक कारण थे।
तिवारी आयोग ने आंदोलनकारियों को दोषी बताया
तिवारी आयोग की रिपोर्ट का पहला निष्कर्ष यह था कि 1983 की हिंसा के भड़कने के लिए चुनाव कराने के फैसले को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। आयोग के सामने पेश किए गए सबूतों से यह साफ होता है कि विदेशी, भाषा आदि के मुद्दे दशकों से लोगों के मन में उथल-पुथल मचा रहे थे। यह पहले भी कई बार हिंसा का रूप ले चुके थे। इनमें से ज़्यादातर गड़बड़ियां चुनावों से जुड़ी नहीं थीं। आयोग ने हिंसा के डर से चुनाव रोकने की दलील को भी खारिज कर दिया। तिवारी आयोग ने हिंसा के लिए आसू और ऑल असम गण परिषद को दोषी ठहराया। आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि इस बात के पुख्ता सबूत हैं कि चुनाव रोकने के इरादे से आगजनी और दंगे हुए। साथ ही सरकारी संपत्ति जैसे भवन, सड़कें, रेलवे ट्रैक और पुलों को नुकसान पहुंचाया गया। यह सब बहुत सुनियोजित और बड़े पैमाने पर हुआ था। हालांकि तिवारी आयोग ने भी माना कि तत्कालीन डीजीपी (स्पेशल ब्रांच) ने चुनाव में मशीनरी को हुई कठिनाइयों के बारे में जानकारी दी थी।
मेहता आयोग ने कांग्रेस पर लगाए गंभीर आरोप
गैर-सरकारी मेहता आयोग ने तिवारी आयोग की दलील को खारिज कर दिया है। मेहता आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक 1983 में चुनाव कराने के लिए माहौल बिल्कुल भी अनुकूल नहीं था। राज्य और केंद्र दोनों सरकारें यह जानती थीं और चुनाव आयोग को भी यह जानना चाहिए था। रिपोर्ट में कहा गया है कि केंद्र में सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी अन्य दलों के चुनाव बहिष्कार के ऐलान का फायदा उठाकर सरकार पर कब्जा करना चाहती थी। दोनों रिपोर्ट में एक तथ्य कॉमन है कि बाहर से आए प्रवासियों की ओर से जमीन कब्जा और असमिया लोगों के बड़ी संख्या में दब जाने का डर का समाधान होना चाहिए। मेहता आयोग ने खुले तौर से बांग्लादेशियों को समस्या बताया है। इस कॉमन लाइन को ही बीजेपी 2026 के विधानसभा चुनाव के लिए मुद्दे के तौर पर तराश रही है।