नई दिल्ली। भारत अपनी राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में संयुक्त राष्ट्र शांति सैनिक योगदान करने वाले देशों (United Nations Troop Contributing Countries – UNTCC) के सेनाध्यक्षों का सम्मेलन आयोजित करने जा रहा है। यह सम्मेलन 14 से 16 अक्टूबर के बीच मानेकशॉ सेंटर, दिल्ली में होगा, जिसमें 33 देशों के सेनाध्यक्ष भाग लेंगे। इनमें अधिकतर देश ग्लोबल साउथ और यूरोप क्षेत्र से होंगे। मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक, वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों ने बताया है कि सभी 33 देशों की भागीदारी की पुष्टि हो चुकी है। भारत के पड़ोसी देशों— बांग्लादेश, श्रीलंका, नेपाल और भूटान के प्रतिनिधि भी इसमें शामिल होंगे। ध्यान देने योग्य बात यह है कि पाकिस्तान और चीन को इस सम्मेलन के लिए आमंत्रित नहीं किया गया है।
भारतीय सेना के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा, “संयुक्त राष्ट्र शांति अभियानों में भारत की भूमिका एक निष्क्रिय पर्यवेक्षक से सक्रिय स्थिरीकरणकर्ता तक विकसित हुई है। बदलते भू-राजनीतिक परिदृश्य में संयुक्त राष्ट्र की शांति स्थापना के प्रयासों को नई चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा।” उन्होंने बताया कि यह सम्मेलन सदस्य देशों को संवाद, सहयोग और पारस्परिक समझ के लिए एक विशिष्ट मंच प्रदान करेगा। हम आपको बता दें कि वर्तमान में लगभग 5,500 भारतीय सैनिक और महिला अधिकारी नौ देशों में संयुक्त राष्ट्र मिशनों का हिस्सा हैं। शांति स्थापना के इतिहास में भारत ने 179 सैनिकों और पुलिसकर्मियों की सर्वोच्च शहादत दी है— जो भारत के “नैतिक नेतृत्व” का प्रतीक है।
यह सम्मेलन भारत की सांस्कृतिक भावना ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’, पूरी दुनिया एक परिवार है, के मूलमंत्र पर आधारित होगा। साथ ही यह भारत की संयुक्त राष्ट्र शांति अभियानों में 75 वर्षों की सहभागिता को भी स्मरण करेगा, जो 1948 में कोरिया युद्ध के दौरान चिकित्सा सहयोग से शुरू हुई थी।
देखा जाये तो संयुक्त राष्ट्र शांति अभियानों के 75 वर्ष पूरे होने पर भारत द्वारा आयोजित यह सम्मेलन केवल एक सैन्य आयोजन नहीं, बल्कि भारत की वैश्विक दृष्टि और नैतिक प्रतिबद्धता का प्रतीक है।
एक ऐसे समय में जब दुनिया संघर्षों, शक्ति प्रतिस्पर्धा और भू-राजनीतिक तनावों से भरी हुई है, भारत खुद को ‘वैश्विक शांति के केंद्र’ के रूप में प्रस्तुत कर रहा है— यह केवल रणनीतिक कदम नहीं, बल्कि सभ्यतागत दृष्टिकोण का विस्तार है।
हम आपको बता दें कि भारत ने संयुक्त राष्ट्र शांति मिशनों में हमेशा अग्रणी भूमिका निभाई है। कोरिया से लेकर कांगो, सूडान, लेबनान और दक्षिण सूडान तक— जहाँ-जहाँ मानवता खतरे में पड़ी, वहाँ भारत के सैनिकों ने सिर्फ हथियार नहीं, बल्कि विश्वास और करुणा के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। 179 सैनिकों की शहादत केवल आँकड़े नहीं हैं— ये भारत की शांति-दृष्टि की कीमत हैं।
इसके अलावा, इस सम्मेलन में पाकिस्तान और चीन को आमंत्रित न किया जाना भी कम प्रतीकात्मक नहीं है। यह कदम यह दर्शाता है कि भारत अब केवल “सहभागी” नहीं, बल्कि शांति विमर्श का निर्णायक सूत्रधार बनना चाहता है— और वह अपने राजनयिक मूल्यों को तय करने में स्वतंत्र है। भारत यह संदेश देना चाहता है कि वैश्विक शांति की चर्चा उन देशों के साथ होगी जो विश्वास और पारदर्शिता के साथ योगदान देने को तैयार हैं, न कि उन ताकतों के साथ जो संघर्ष को नीति का हिस्सा मानती हैं।
देखा जाये तो भारत का यह आयोजन अपने आप में ‘सॉफ्ट पावर डिप्लोमेसी’ का नया उदाहरण है। जहाँ पश्चिमी राष्ट्र शांति अभियानों को अपने सामरिक हितों से जोड़ते हैं, वहीं भारत इसे नैतिक जिम्मेदारी और वैश्विक परिवार के मूल्य के रूप में देखता है। “वसुधैव कुटुम्बकम्” का विचार केवल सांस्कृतिक आदर्श नहीं, बल्कि एक कूटनीतिक दर्शन बन चुका है— जो यह मानता है कि स्थायी शांति बल से नहीं, सहभागिता और समझ से बनती है। भारत के सैनिक जब किसी संघर्षग्रस्त देश में नीली टोपी पहनकर उतरते हैं, तो वे केवल संयुक्त राष्ट्र के प्रतिनिधि नहीं होते, वह भारत की सभ्यता की पहचान भी लेकर जाते हैं। यह पहचान है सहअस्तित्व, संयम और मानवता की।
बहरहाल, आज जब युद्ध, आतंक और अविश्वास से भरी दुनिया में स्थायी शांति एक सपना लगती है, तब भारत का यह सम्मेलन नए वैश्विक विमर्श की शुरुआत है। यह भारत के लिए अवसर है कि वह केवल सैनिक योगदानकर्ता नहीं, बल्कि शांति के विचार का शिल्पकार बने। जैसा कि एक अधिकारी ने कहा— “शांति थोपी नहीं जाती, उसे बनाया जाता है— सैनिक दर सैनिक, कर्म दर कर्म।” यही भारत का संदेश है कि शांति केवल सुरक्षा का नहीं, बल्कि संस्कृति का विषय है।