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बिहार चुनाव ‘जाति संग्राम’ : चुनाव में 30 सीटों एक ही जाति के उम्मीदवार, जाति गोलबंदी तय करती है किसे मिलेगी सत्ता

पटना। बिहार विधानसभा चुनाव के दूसरे चरण में राज्य के 20 जिलों की 122 सीटों पर मतदान जारी है। बिहार चुनाव में जातिवाद हमेशा से ही एक्स फेक्टर रहा है। इस बार भी यह देखने को मिल रहा है, लेकिन. . .

पटना। बिहार विधानसभा चुनाव के दूसरे चरण में राज्य के 20 जिलों की 122 सीटों पर मतदान जारी है। बिहार चुनाव में जातिवाद हमेशा से ही एक्स फेक्टर रहा है। इस बार भी यह देखने को मिल रहा है, लेकिन बिहार के मतदाताओं के लिए थोड़ी मुशिकल हो गई है, क्योंकि कई सीट ऐसे है, जहाँ एक ही सीट पर एक ही जाती के उम्मीदवार खड़े हो गए है। इसलिए ‘किसे वोट करें..बड़ा कंफ्यूजन है..सब अपने ही हैं’, बिहार चुनाव 2025 के दूसरे फेज की वोटिंग में मतदाता के सामने बड़ी समस्या है। राजनीतिक दलों के फॉर्मूला के सामने मतदाता भले कंफ्यूज हैं, लेकिन सभी दलों का मकसद ‘कुर्सी’ है। इसलिए पक्ष-विपक्ष सभी एक ही जाति के उम्मीदवार को उतारा है।
30 सीटों एक ही जाति के उम्मीदवार: करीब 30 सीटों पर यादव, कोयरी, राजपूत, मुस्लिम, बनियां जाति को उम्मीदवार बनाया गया है। दलों के इस फैसले से मतदाता के साथ-साथ राजनीतिक विशेषज्ञ भी हैरान हैं। हालांकि इनके लिए यह कोई नयी बात नहीं है, क्योंकि बिहार में जाति की राजनीति तो जमाने से होती रही है।

बिहार चुनाव में जातिगत उम्मीदवार पर विशेषज्ञ का राय

कोई दल पीछे नहीं: जाति की रेस में कोई दल पीछे नहीं है. बीजेपी, जदयू, राजद, कांग्रेस, जनसुराज सभी दबंग जाति के उम्मीदवारों को चुनाव जिताउ माना है। राजनीतिक दलों ने वैसी जातियों पर भरोसा जताया है जो सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक दृष्टिकोण से सशक्त है। इसलिए इस चरण की वोटिंग में राजनीतिक दलों के रणनीति का लिटमस टेस्ट भी होगा।

राजनीति का यह कड़वा सच : राजनीतिक विशेषज्ञ कहते हैं बिहार की राजनीति का यह कड़वा सच है कि नेता जाति की बदौलत ही सत्ता तक पहुंचने की कोशिश करते हैं। इसलिए दलों के द्वारा एक ही जाति के उम्मीदवार को कैंडिडेट बनाया गया है. इसका मकसद एक ही है ‘कुर्सी’।
“जातिगत वोटरों का ऐसा असर है कि अगर राजनीतिक दल के पास पढ़ा लिखा उम्मीदवार भी है तो उसे प्रत्याशी नहीं बनाकर बाहुबलियों को टिकट दे दिया जाता है। जाति राजनीति के लिए अभिशाप बन गया है. विकास में यह सबसे बड़ी बाधा है.” -कौशलेंद्र प्रियदर्शी, राजनीतिक विशेषज्ञ

जाति को बनाया हथियार : दूसरे चरण में दो दर्जन विधानसभा सीटें ऐसी है, जहां पर राजनीतिक दलों ने मैदान में समान जाति के उम्मीदवार पर दांव लगाया है। राजनीतिक और सामाजिक तौर पर मजबूत जातियों पर ही राजनीतिक दलों का भरोसा है।

बिहार में यादवों की मजबूती : बिहार में यादव को डोमिनेंट कास्ट माना जाता है. 14.26% आबादी यदुवंशियों की है। चार विधानसभा सीटें ऐसी है, जिसपर सभी दलों ने यादव जाति के उम्मीदवार को मैदान में उतरा है। जानकार बताते हैं कि ये उम्मीदवार उनके लिए ‘तुरुप का इक्का’ साबित हो सकते हैं।

बिहार चुनाव में जातिगत उम्मीदवार

चार सीट पर यादव बनाम यादव: अररिया के नरपतगंज विधानसभा सीट पर BJP ने देवंती यादव को उम्मीदवार बनाया है। RJD ने भी मनीष यादव को मैदान में उतारा है. प्रशांत किशोर ने जनार्दन यादव को जन सुराज से उम्मीदवार बनाया है।बांका के बेलहर सीट पर JDU के मनोज यादव और RJD से चाणक्य रंजन मैदान में उतारा हैं दोनों यादव जाति से आते हैं।

नवादा में यादवों का मुकाबला : नवादा सीट पर JDU ने विभा देवी को उम्मीदवार बनाया है. RJD ने कौशल यादव को उम्मीदवार बनाया है। दोनों उम्मीदवार यदव जाति के हैं। गया के बेलागंज सीट पर JDU की ओर से मनोरमा देवी उम्मीदवार हैं. RJD ने सुरेंद्र यादव के पुत्र विश्वनाथ कुमार सिंह को मैदान में उतारा है।

अल्पसंख्यक उम्मीदवार पर सियासत : बिहार की सियासत मुस्लिम वोट बैंक के इर्द-गिर्द घूमती है। तमाम राजनीतिक दलों के लिए अल्पसंख्यक वोट हॉट केक की तरह है. राज्य में मुसलमान की आबादी 17.70% है. इस वजह से तमाम राजनीतिक दल अल्पसंख्यक उम्मीदवार को मैदान में उतारने का काम करते हैं।

बिहार चुनाव में जातिगत उम्मीदवार

ल्पसंख्यक बनाम अल्पसंख्यक : अररिया विधानसभा सीट पर JDU ने शगुफ्ता अजीम को उम्मीदवार बनाया है। कांग्रेस की ओर से अब्दुल रहमान चुनाव मैदान में हैं, जोकीहाट सीट पर JDU ने मंजर आलम को उम्मीदवार बनाया है।शाहनवाज हुसैन को RJD ने जोकीहाट सीट पर उम्मीदवार बनाया है। शाहनवाज RJD के विधायक रह चुके हैं। असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी AIMIM ने जोकीहाट सीट पर मो. मुर्शीद को मैदान में उतारा है।

अमौर में अल्पसंख्यक में मुकाबला : पूर्णिया में अमौर विधानसभा सीट पर JDU ने सभा जफर को टिकट दिया है तो कांग्रेस पार्टी की ओर से पूर्व मंत्री जलील मस्तान उम्मीदवार हैं। AIMIM के प्रदेश अध्यक्ष अख्तरुल इमान भी अमोर सीट पर फिर से जीत हासिल करने के लिए चुनाव के मैदान में हैं। किशनगंज के बहादुरगंज विधानसभा में मो. कलीमुद्दीन (LJPR), मो. मसावर आलम (INC) और मो. तौसीफ आलम (AIMIM) उम्मीदवार हैं।

जाति की राजनीति नयी बात नहीं : बिहार की राजनीति के जानकार कौशलेंद्र प्रियदर्शी ने बताया कि यह कोई नयी बात नहीं है। जब ब्रिटिश सरकार के द्वारा गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट लाया गया था और 1937 में बिहार प्रिमियर का चुनाव हुआ था। इस चुनाव में महात्मा गांधी ने डॉ. राजेंद्र प्रसाद को निर्देश दिया कि ‘जाइये और लोगों से कहिये कि अनुग्रह नारायण सिंह को वहां का प्रिमियर चुन लें।’

गांधी जी की अपील को नहीं माना : कौशलेंद्र प्रियदर्शी कहते हैं कि उस समय दो नेता थे, एक श्रीबाबू जिन्हें ब्राह्मण का समर्थन प्राप्त था।दूसरे ओर राजेंद्र प्रसाद को कायस्थ का समर्थन प्राप्त था। उस समय सवर्णों की राजनीति होती थी। गांधी के निर्देश और राजेंद्र प्रसाद की अपील के बावजूद लोगों ने श्रीबाबू को चुन लिया।
1990 के बाद बढ़ोतरी: कौशलेंद्र प्रियदर्शी के अनुसार यह जातीय गोलबंद का असर था। 1990 के बाद इसमें और ज्यादा बढ़ोतरी हुई है। उस समय सवर्णों की राजनीति होती थी और बड़े-बड़े पदों पर उन्हीं को बिठाया जाता था।

पार्टी ने जाति को मोहरा बनाया : 1990 के बाद से आरक्षण कमिशन के आने के बाद हर जाति को लगने लगा कि मेरी जाति का नेता होगा तो लाभ मिलेगा। इसके बाद पार्टी ने भी जाति को मोहरा बना लिया. इसका उदाहरण बिहार में देखने को मिल रहा है, “जाति की छाती पर बिहार की राजनीति नाचती है. राजद यादवों की पार्टी जानी जाती है। बीजेपी को बिहार में सवर्णों का समर्थन है। कांग्रेस सवर्णों और दलितों के वोट से चुनाव जीतती थी। बसपा, जीतन राम मांझी की हम पार्टी, जदयू, मुकेश सहनी की वीआईपी सहित तमाम दल राजितगत राजनीति करती है.” -कौशलेंद्र प्रियदर्शी, राजनीतिक विशेषज्ञ

सवर्णों की भी राजनीति : बिहार में सिर्फ पिछड़ी जाति की नहीं बल्कि सवर्णों की भी राजनीति होती रही है। बिहार में जातिगत गणना (2023) के अनुसार, राजपूत जाति की जनसंख्या 45,10,733 है जो राज्य की कुल आबादी का 3.45% है. दलों ने चुनावी राजनीति में राजपूत को खूब महत्व दिया है। दलों को लगता है कि राजपूत जाति का समाज पर प्रभाव के चलते उनके दल को फायदा मिल सकता है।

तीन सीटों पर राजपूत बनाम राजपूत : गया के वजीरगंज सीट पर BJP ने वीरेंद्र सिंह को उम्मीदवार बनाया है तो कांग्रेस ने भी अवधेश कुमार सिंह को उम्मीदवार बनाया है। कैमूर के रामगढ़ सीट पर BJP के वर्तमान विधायक अशोक सिंह मैदान में हैं। RJD ने जगदानंद सिंह के पुत्र अजीत सिंह को उतारा गया है। औरंगाबाद सीट पर BJP ने टीएन सिंह को उम्मीदवार बनाया है। कांग्रेस पार्टी ने आनंद शंकर सिंह को टिकट दिया है।

बिहार चुनाव में जातिगत उम्मीदवार

पासवान वोटरों की बदौलत राजनीति : बिहार में पासवान जाति की आबादी लगभग 5.3% है। यह दलितों में सबसे सशक्त जाति के रूप में उभरी है। रामविलास पासवान और चिराग पासवान ने और भी सशक्त बनाने का काम किया है। रामविलास पार्टी ने पासवान जाति के वोटों की बुनियाद पर पार्टी का गठन भी किया. बिहार की सियासत में माना जाता है कि पासवान वोटर चिराग पासवान का एकाधिकार है।

तीन सीटों पर पासवान बनाम पासवान : कटिहार के कोढा सीट पर BJP ने पासवान जाति से आने वाली कविता देवी को उम्मीदवार बनाया है. कांग्रेस पार्टी ने पूनम देवी को उतारा है. भागलपुर के पीरपैंती विधानसभा सीट पर BJP ने मुरारी पासवान को मैदान में उतारा है. RJD ने रामविलास पासवान को उम्मीदवार बनाया है. बोधगया सीट पर लोजपा रामविलास ने श्याम देव पासवान और RJD ने पूर्व मंत्री सर्वजीत को प्रत्याशी बनाया है.

बिहार चुनाव में जातिगत उम्मीदवार

धानुक जाति पर नजर: बिहार में अति पिछड़ा सियासत भी राजनीतिक दलों की मजबूरी है. अति पिछड़ा समुदाय में कई जातियां हैं लेकिन, राजनीतिक दलों की नजर धानुक जाति पर अधिक रहती है. जाति का जनगणना के मुताबिक राज्य के अंदर धानुक जाति की आबादी 2.13% है. कई बार राजनीतिक दलों को धानुक जाति के उम्मीदवार मजबूती भी प्रदान करते हैं.

तीन सीटों पर अति पिछड़ा उम्मीदवार : मधुबनी के फुलपरास सीट पर JDU ने वर्तमान विधायक और मंत्री शीला मंडल को उम्मीदवार बनाया है. कांग्रेस ने सुबोध मंडल को टिकट दिया है. अररिया के सिकटी विधानसभा सीट पर BJP ने विजय कुमार केवट को टिकट दिया है. VIP ने हरि नारायण केवट उम्मीदवार बनाया है. पूर्णिया के रुपौली से BJP ने कलाधर मंडल को उम्मीदवार बनाया है. तो RJD ने बीमा भारती को उम्मीदवार बनाया है.

बिहार चुनाव में जातिगत उम्मीदवार

स्वच्छ राजनीति के लिए अच्छा नहीं : राजनीतिक विश्लेषक कौशलेंद्र प्रियदर्शी कहते हैं कि बिहार की राजनीति का आधार जाति है. राजनीतिक दल भी डोमिनेंट कास्ट को टिकट देते हैं. उन्हीं से दलों को उम्मीद भी रहती है. कुछ जातियां जरूर दौड़ में पीछे रह जाती हैं. निश्चित तौर पर स्वच्छ राजनीति के लिए यह शुभ संकेत नहीं है.

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